
हिमाचल प्रदेश ने बरसात में इस वर्ष दु:खों के असीम पहाड़ों व सैलाब को झेला है। आफत की बरसात के ज़ख्म इतने गहरे हैं कि उनका दर्द कभी नहीं मिट सकता।
अनेकों लोगों ने अपनी सारी जमापूंजी खो दी तो कईयों ने अपनों तक को खो दिया, जिस क्षति की भरपाई असंभव है।
हिमाचल प्रदेश को हजार करोड़ों का नुक़सान हुआ है, जिससे उभर पाना बहुत मुश्किल प्रतीत होता है।
प्रदेश में कई कार्य आपदा के दंश प्रभाव कह कर सरकार ने टाल दिए।
लेकिन दूसरी तरफ… अपनी झोली भरने की बात आई तो हालात कुछ और ही थे। सड़कें टूटीं, पुल बह गए, स्कूल ढह गए, पर अफसोस! इस टूटे प्रदेश के जख्मों की मरम्मत करने के बजाय सरकार ने पहले माननीयों के वेतन में ‘सुधार’ की मरम्मत करना अधिक उचित समझा।
पक्ष मस्त
कर्मचारियों और अधिकारियों का वेतन तो नीतियों और नियमों के अनुसार तय होता है।
हर ग्रेड, हर प्रमोशन, हर बढ़ोतरी के लिए लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। पर जब बात आती है माननीयों की, तो न कोई नीति चाहिए, न प्रक्रिया। इन माननीय के लिए कोई नीति क्यों नहीं..जब मर्जी की अपनी तनख्वाह बढा़ ली,ये कैसा तंत्र!
कोई रोक ना टोक जब मर्जी की तब बढ़ा कर कर ली मौज!
प्रतीत होता है यह लोकतंत्र नहीं, अब तो ‘मनमाननीयतंत्र’ बन चुका है, जहाँ वेतनवृद्धि मनमानी पर निर्भर है!
विपक्ष मस्त
अक्सर जब ऐसे निर्णय होते हैं तो विपक्ष भी चुपचाप इस मलाई को चाटने का काम करते हैं, तब उन्हें आपदा की याद नहीं आती ,ऐसे तो बहुत चिल्ला चिल्ला कर कहते थे सरकार आपदा प्रभावित के लिए आर्थिक सहायता नहीं कर रही है!
अब कहां गई वो चिंता..नोटों की गर्माहट में जनता की तकलीफें, प्रदेशहित सब भूल गए…!
लगता है, “सत्ता और विपक्ष अब दो नहीं, एक ही थाली के रोटीदार हैं।”
जनता त्रस्त
कांग्रेस सरकार के गारंटी पत्र (हिमाचल चुनाव 2022) में साफ-साफ लिखा था ‘5 लाख युवाओं को रोजगार’ देंगे जबकि वर्ष 2022-23 की रपट के अनुसार प्रदेश में 708230 ही पंजीकृत बेरोजगार हैं। यानि कांग्रेस के गारन्टी पत्र की मानें तो वे अपने कार्यकाल में हिमाचल की कम से कम 50% युवाओं को तो रोजगार देंगें हीं। जबकि वास्तविक स्थिति जगजाहिर है। राज्य चयन आयोग आज दिन तक ढंग से हरकत में नहीं आया है, रोजगार के अवसर ना के बराबर हैं, प्रदेश के ग्रेजुएट, पोस्टग्रेजुएट युवा स्थाई रोजगार के अभाव में 4500-5000 में मित्र बनने को बेहद मजबूर हैं। सरकार ने प्रदेश के युवाओं का पूर्णत: शोषण करने में जरा कसर नहीं छोड़ी है, रोजगार के नाम पर 5000 रुपए प्रतिमहीना और कभी ये मित्र कभी वो मित्र..।
और उनका वेतन भी 4-5 महीने लेट! यदि प्रदेश की आर्थिक स्थिति इतनी ही दयनीय है, तो क्या माननीय नहीं कर सकते थे उचित समय का वेट?
मात्र 5000 रूपये अधिकतम, इन पैसों में कोई कैसे गुज़ारा करे?
राशन, किराया, बच्चों की पढ़ाई — सब इसी में?
पर अफसोस, उनकी आवाज़ सत्ता के गलियारों तक नहीं पहुँचती।
क्योंकि वो न माननीय हैं, न मंत्री — बस एक साधारण कर्मचारी हैं,
जिनके पास वोट तो है, पर प्रभाव नहीं। माननीयों की गाड़ी का एक दिन का पेट्रोल भी उनकी पूरी तनख्वाह से ज़्यादा महंगा पड़ता है।

उधर दूसरी और युवाओं के लिए तो जॉब ट्रेनी पॉलिसी लॉन्च कर दी गई जिसकी अधिसूचना में नियुक्ति तिथि के 2 वर्ष बाद अभ्यर्थी की पुन: परीक्षा लेने की बात स्पष्ट अक्षरों में लिखित थी, युवाओं द्वारा विरोध करने पर सरकार द्वारा मौखिक रूप से तो कह दिया गया कि हम इस पॉलिसी के अंतर्गत दो वर्ष के बाद कोई एग्जाम नहीं लेंगे। किंतु एग्जाम न लेने का आदेश व्यां करती कोई अधिसूचना आज दिन तक नहीं आई। परिणामस्वरूप कथित तौर पर नौनी विश्वविद्यालय सोलन मैं पहले जॉब ट्रेनी पॉलिसी के अंतर्गत कुछ भर्तियां हुई। और उनके नियुक्ति पत्र (जॉइनिंग लेटर) में साफ-साफ लिखा था की दो वर्ष के भीतर पुन: पेपर होगा। इस पॉलिसी को देखकर एक प्रश्न बरबस ही मन में आता है कि यदि सिस्टम का अंग बनने के लिए एक कर्मचारी को इतने पड़ावों को पार करते हुए अपनी दक्षता को प्रमाणित करना पड़ रहा है। तो सिर्फ कर्मचारी ही क्यूँ , विभागों की सर्वोच्च कुर्सियों पर बैठे मंत्री क्यों इसेसे अछूते रहें। यदि भर्ती प्रक्रिया में संशोधन हो सकता है तो विधानसभा सदस्यों की योग्यता तय करने वाले अनुच्छेद 173 में क्यों नहीं ? यदि वास्तव में ही माननीय जी प्रदेश का चहुंमुखी विकास चाहते हैं तो क्यूँ न विधायक बनने के लिए भी एकआध परीक्षा रख देते हैं। पर अपने पैर पर थोड़े कोई कुल्हाड़ी मारता है।
नए रोजगार के अवसर सृजित करना तो छोड़िए वर्तमान में कार्यरत कर्मियों की देखरेख करने में भी प्रदेश सरकार कामचोर नजर आ रही है।

108 और 102 जैसी आपातकालीन सेवाओं में अपने कर्तव्यों का वहन कर रहे कर्मचारी तक अपने वेतन में वृद्धि की मांग विभिन्न मंचों पर उठा रहे हैं। हाल ही में किए आंदोलन में उनकी मांगों में साफ़-साफ़ लिखा था कि एड यूनियन एक्ट 1962 व औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के नियमों को दरकिनार कर यूनियन नेताओं की प्रताड़ना की जा रही है। उनका कहना है कि जब मजदूर अपनी यूनियन के माध्यम से अपनी मांगों को सशक्त करने की कोशिश करता है तो यूनियन के नेतृत्वकर्ताओं को मानसिक तौर पर प्रताड़ित करके या तो त्यागपत्र देने पर मजबूर किया जाता है या फिर उन्हें अकारण ही महीनों तक ड्यूटी से बाहर कर दिया जाता है। वहीं मुख्यमंत्री ने दिवाली से पहले परिवहन विभाग के पेंशनरों और कर्मचारी को डीए और एरियर देने के की घोषणा की थी जो दिवाली के एक सप्ताह बीत जाने के पश्चात भी लाभार्थियों को नहीं मिला है। हाल ही में हुई एचआरटीसी सेवानिवृत कर्मचारी कल्याण संघ की एक बैठक में जिला कांगड़ा अध्यक्ष चमन पुंडीर ने कहा कि विधायक अपने वेतन वृद्धि के समय तो एकजुट हो जाते हैं किंतु हम बुजुर्गों पेंशनरों की कौन सोचे जो अपने हकों के लिए धक्के खाने को मजबूर हैं। जिस प्रदेश में 108 और 102 जैसी मूलभूत और आवश्यक सेवाओं के कर्मचारियों द्वारा वेतन वृद्धि की बात तक करने पर कथित तौर पर उन्हें मानसिक अवसाद का शिकार होना पड़ता हो, जिस राज्य में सरकार ओपीएस का जुमला देकर ही जीती हो उसी राज्य में बुजुर्ग पेंशनर अपने हकों के लिए सड़कों पर धक्के खाते हुए बुजुर्गावस्था में आंदोलन करने को विवश हों। जिस प्रदेश में सरकार द्वारा भर्ती किए गए मित्रों तक की स्थिति तक दयनीय हो। जब प्रदेश पूर्णत: त्रासदीग्रस्त हो, लोगों के आशियाने तक छिन गए हों और उन्हें आसरा देने के बजाए ठीक उसी समय बोर्ड व निगमों के अध्यक्षों उपाध्यक्षों का वेतन आपदा के बीच 30 हजार से सीधे 1.1 लाख रुपए प्रतिमाह हो जाए। जिस प्रदेश का विपक्ष पूरी तरह मर चुका हो और जब प्रदेश त्रासदी से जूझ रहा हो और सरकार अपनी खाली जेबों की चर्चा स्वयं ही कर रही हो ऐसे भाग्यशाली प्रांत में आपदा में भी अवसर तलाश लेने की यह कला शायद केवल ‘राजनीति’ ही सिखा सकती है।
अंत में बस इतना ही —
“जनता जब सैलाब में बहती है,
तो सत्ता वेतनवृद्धि में नहाती है।
सवाल यह नहीं कि पैसा कहाँ से आया…
सवाल यह है कि शर्म कब आएगी। …
✍️ठाकुर दीक्षित धलरिया
✍️ मनीष कुमार ‘निष्पक्ष’
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