हम मनुष्य फेफड़ों द्वारा सांस लेते हैं, वैसे ही हमारे हरे भरे वन पृथ्वी के फेफडो़ं के रूप में कार्य करते हैं। वन जितने हरे भरे होंगें उतने ही मां वसुंधरा के फेफड़े स्वस्थ होंगें। वन पृथ्वी पर जीवन हेतु आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य हैं। वन न केवल पृथ्वी के फुफ्फस हैं, बल्कि जैव विविधता के सबसे बड़े संरक्षक भी हैं। ये पर्यावरण संतुलन बनाए रखने, जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने और लाखों लोगों की आजीविका का साधन प्रदान करने में अहम भूमिका निभाते हैं। एफएओ के अनुसार, वनों में लगभग 80% स्थलीय प्रजातियाँ निवास करती हैं और यह 25% से अधिक वैश्विक आबादी को आजीविका प्रदान करते हैं। पृथ्वी का 31% हिस्सा (लगभग 4.06 अरब हेक्टेयर) जंगलों से आच्छादित है।
कुछ वर्षों से कुछ बुद्धिजीवी लोगों द्वारा जगह-जगह वन संरक्षण के प्रति जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं इसी संदर्भ में हर साल 21 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस मनाया जाता है। इस दिन का उद्देश्य पेड़ों और वनों के महत्व को रेखांकित करना और लोगों को उनके संरक्षण के प्रति जागरूक बनाना है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने 1971 में यूरोपीय कृषि महासंघ के प्रस्ताव पर इसकी शुरुआत की थी। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 28 नवंबर 2012 को पारित एक प्रस्ताव में 21 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस के रूप में घोषित किया गया था। इससे प्रतिवर्ष लोगों में जागरूकता तो बढ़ रही है लेकिन पृथ्वी के स्वास्थ्य में कोई खास सुधार नहीं हो रहा बल्कि जागरूकता फैलाने के बावजूद भी दिन प्रतिदिन हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। 2000 से 2020 के बीच लगभग 10 करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र नष्ट हो चुके हैं।अमेज़न वर्षावन दुनिया का सबसे बड़ा जंगल है, लेकिन यह भी तेजी से सिमट रहा है।
आज सचमुच हर दिवस को वैनिकी दिवस के रूप में मनाने की आवश्यकता प्रतीत होती है क्योंकि विकास की तेज़ आंधी में आज जंगलों के पत्ते भी सहमे हुए हैं। कुल्हाड़ी और मशीनों की गर्जना उनके कानों में रोज़ किसी शोकगीत की तरह गूंजती है। कंक्रीट के महलों और चौड़ी सड़कों के लिए हरे-भरे पेड़ों की बलि चढ़ाई जा रही है। जंगल काटे जा रहे हैं, क्योंकि इंसान को रहना है। लेकिन सवाल यह है कि जब जंगल ही नहीं बचेंगे, तो इंसान रहेंगे कहाँ? शायद मंगल ग्रह पर।
वनों की कटाई पर तर्क दिया जाता है कि यह विकास के लिए आवश्यक है। सड़कें चाहिए, कारखाने चाहिए, नए शहर चाहिए—और इसके लिए जंगलों को रास्ते से हटाना जरूरी है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई कहे कि “हम साँस तो लेना चाहते हैं, लेकिन फेफड़े रखने की जगह नहीं है!”
हर साल “वन महोत्सव”, विश्व “पर्यावरण दिवस“, “अंतराष्ट्रीय वन दिवस” जैसे ढेरों दिवस मनाए जाते हैं। बड़ी-बड़ी हस्तियाँ, सफेद कुर्ते-पायजामे में, कैमरों के सामने एक छोटा सा पौधा लगाकर फोटो खिंचवाती हैं। अखबारों में छपता है—”पर्यावरण संरक्षण की दिशा में बड़ा कदम” आदि इत्यादि फिर वह पौधा सूख जाए या दब जाए, इसकी चिंता किसी को नहीं होती।
पेड़ कटते हैं, तो प्रदूषण बढ़ता है। लोग सांसों में जहर घोलने वाले कारखानों के लिए जंगल उजाड़ते हैं, फिर बढ़ते प्रदूषण की शिकायत करते हैं। गर्मी बढ़ती है तो एयर कंडीशनर लगाए जाते हैं, फिर बिजली की माँग बढ़ती है और नए पावर प्लांट के लिए और जंगल काट दिए जाते हैं। यह एक ऐसा चक्र बन चुका है, जो हमें बर्बादी की ओर ले जा रहा है।
कुछ अतिसमझदारगण कहते हैं कि जितने पेड़ काटो , उतने ही नए लगाए जाएंगे। यह वैसा ही है जैसे कोई कहे कि “एक बुजुर्ग को घर से निकाल दो, और बदले में एक नवजात शिशु को ले आओ।” नए पेड़ों को बड़ा होने में सालों लगते हैं, तब तक न जाने कितनी गर्मियाँ और प्रदूषण हमें झेलने पड़ते हैं। ‘वन ट्री प्लांटेड‘ में प्रकाशित एक लेख के अनुसार एक पेड़ प्रतिदिन 274 लीटर ऑकसीजन छोड़ता है जोकि मानव की दैनिक ऑक्सीजन आवश्यकता का लगभग आधा है।
हम जंगल नष्ट करेंगे, फिर वन्यजीव संरक्षण पार्क बनाएंगे। हम पेड़ काटेंगे, फिर ऑक्सीजन सिलेंडर बेचेंगे। क्या यही है विकास की परिभाषा?
आज इंसान जंगलों को काटकर खुद को विकास की ओर बढ़ता हुआ मान रहा है। लेकिन जब आसमान में परिंदे नहीं होंगे, जब गर्मी 50 डिग्री पार कर जाएगी, जब ऑक्सीजन के लिए भी पैसे देने पड़ेंगे—तब शायद हमें समझ आएगा कि हमने जंगल नहीं, अपनी साँसें काटी हैं। लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी।
हम केवल भारत की ही बात करें तो हम विकसित देश बनने की दौड़ में इतने अंधे हो चुके हैं कि हम अंधाधुंध पेड़ काटते चले जा रहे हैं जिससे शुद्ध वायु,जल के साथ-साथ हम ना जाने कितनी प्रजातियां को विलुप्त करते जा रहे हैं। ऐसा करते हुए हम नदियों, पहाड़ों अन्य जानवरों के परिवेश कुछ नहीं देख रहे हैं, हाल ही में हसदेव में हुई घटनाएं इसका ताजा उदाहरण हैं कि हम अपनी प्रकृति से किस हद तक खिलवाड़ कर रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण केवल कागजों में ही सीमित न रह जाए पृथ्वी को पुन: स्वस्थ ग्रह बनाने के लिए यदि धरातल पर सच्ची निष्ठा से कार्य नहीं किया गया तो इसके परिणाम भयावह व अकल्पनीय होंगे। यदि पृथ्वी को इसी हाल पर छोड़ा गया तो वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब मंगल आदि ग्रहों की तरह पृथ्वी पर भी जीवन चक्र जल्द ही समाप्त हो जाएगा।
मनीष कुमार
स्वतन्त्र लेखक एवं युवा स्तम्भकार,
महाराज नगर
जयसिंहपुर(कांगड़ा)
हिमाचल प्रदेश
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